जुतीं बैल बन करके हल में, जाकर माँ-लाड़ी

 





ताती शक्ति जेष्ठ मास की, उगले सूरज आग।
तन में तनिक चैन नहीं पाते, जलें कृषक के हिस्से।
झर-झर झरते मेघ गगन से, बरसे मूसलधार।
हाड़ कंपाती ठंड में तन-मन, हो जाते हैं लाचार।
कैसे जोतें हल खेत में, गिरबी रखे हैं बैल।
विपदा का है घोर अंधरा, नहीं गुजराती गैल ।।
दुग्ध दूध का कर्ज 2.1 आगे आता है माँ।
सुख-दुख में सखी-सहचरी, सभाओं को वामा।
जुतीँ बैल बन कर हल में, जा माँ-लाड़ी।
तीनों मिलकर खींचे जा रहे हैं, गृहस्थी की गाड़ी।
बंजर धरती में हल-पहुंच कर, हलधर बनकर आते हैं।

रुक्ष-कुक्षि को रत्न-प्रकटलभा कर मोती उपजाएँ।
स्वेद-बदुओं से विचारित कर, पृथ्वी की प्यास बुझाएँ।

भारी के मोती बोकर सोने सी फसल उगा।
सभी जग के श्रेणियों रोग का, करें-औषधि उपचार। 

अन्न-प्रदाता कृषक-वैद्य क्यों, बेबस लाचार रहते हैं?
माँ सी ममता भरा दिल में, जो भोजन भर पेट बनाते हैं।
कैसा 'शील'! विधि की लाचारी, वही भूके सो जाते हैं?


रचयिता-शीलचंद्र शास्त्री, ललितपुर उ.प्र। 




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